ख़बर पड़ताल ब्यूरो:- बच्चों के लिए माता पिता हर किसी परिस्थियों को पर कर लेते हैं, बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना कर लेते हैं, पर एक ऐसे माता पिता हैं जो अपने ही बेटे के लिए इच्छा मृत्यु मांग रहे हैं। बता दें की 62 साल के अशोक राणा अपने 30 साल के जवान बेटे के लिए इच्छा मृत्यु की मांग कर रहे हैं. परिवार के इस दर्दनाक फैसले के पीछे 11 सालों का संघर्ष है. 2013 में हुए एक हादसे ने उनके बेटे हरीश से उसके सारे सपने छीन लिए. लाख कोशिशों के बावजूद उनकी हालात में सुधार न होता देख परिवार ने पैसिव यूथेनेशिया यानी निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की मांग की है…
दिल्ली के एक परिवार के 62 साल के अशोक राणा अपने 30 साल के जवान बेटे के लिए इच्छा मृत्यु की मांग कर रहे हैं. परिवार के इस दर्दनाक फैसले के पीछे 11 सालों का संघर्ष है. रोज़ अपने सामने बेजान पड़े बेटे को देखना किसी भी मां-बाप के लिए अभिशाप जैसा है. लेकिन अब अशोक राणा और उनकी पत्नी की हिम्मत भी जवाब दे रही है, अब उनसे अपने बेटे का दर्द नहीं देखा जा रहा लिहाज़ा उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट से बेटे के लिए पैसिव यूथेनेशिया यानी निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की मांग की है, साल 2013 में हुए हादसे से पहले अशोक राणा और उनके परिवार की ज़िंदगी ठीक-ठाक चल रही थी. उनका बेटा हरीश मोहाली में चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी से बीटेक की पढ़ाई कर रहा था. हरीश ने आगे की जिंदगी के लिए हजारों सपने देखे थे, दिल में कई ख्वाब थे. हरीश ने सोचा था कि बीटेक की पढ़ाई पूरी कर वो अपने माता-पिता का सहारा बनेंगे, लेकिन साल 2013 में एक दिन उनके सारे सपने चकनाचूर हो गए, एक हादसे ने हरीश और उनके पूरे परिवार की जिंदगी हमेशा-हमेशा के लिए पूरी तरह से बदल दिया. हरीश अपने पीजी में चौथे मंजिल से नीचे गिर गए, इस हादसे में उनके सिर में गंभीर चोट आई जिसकी वजह से वो बीते 11 साल से बिस्तर पर बेजान पड़े हैं. हरीश को ट्यूब के जरिए लिक्विड फूड दिया जा रहा है और वो 100 फीसदी अपंग हो चुके हैं।
हरीश के बारे में बात करते हुए उनके पिता अशोक बेहद दुखी नज़र आते हैं, उनके शब्दों में 11 साल की पीड़ा साफ झलकती है. टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए अशोक राणा ने बताया कि जब हरीश को चोट लगी तब उन्होंने PGI चंडीगढ़, दिल्ली में AIIMS, राम मनोहर लोहिया अस्पताल, लोक कल्याण और फोर्टिस में भी इलाज कराया लेकिन हरीश की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. शुरुआत में करीब एक साल हरीश की देखभाल और इलाज के लिए घर पर 27 हज़ार रुपये/ महीने पर नर्स भी रखी वो भी तब जब उनकी खुद की तनख्वाह 28 हज़ार रुपये/महीना थी. नर्स के खर्च के आलावा फिजियोथैरेपी के लिए भी 14 हज़ार रुपये देने पड़ते थे, जो कि लंबे समय तक अशोक राणा और उनके परिवार के लिए बेहद मुश्किल था. आखिरकार आर्थिक तंगी के चलते उन्होंने घर पर खुद ही हरीश की देखभाल करने का फैसला लिया।
हरीश के इलाज के लिए पिता अशोक राणा ने वो सब कुछ किया जो एक पिता को करना चाहिए था. उन्होंने दक्षिणी-पश्चिमी दिल्ली में स्थित अपना 3 मंजिला मकान तक बेच दिया. इस मकान में उनका परिवार साल 1988 से रह रहा था, इस घर से जुड़ी कई यादें थीं लेकिन उन्होंने अपने बेटे के इलाज के लिए ये कुर्बानी देनी भी मंजूर की. टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए अशोक राणा बताते हैं कि उनके इस घर तक एंबुलेंस की पहुंच नहीं थी और हरीश की हालत ऐसी थी कि कभी भी किसी भी वक्त एंबुलेंस की जरूरत पड़ सकती थी लिहाजा उन्होंने घर बेचने का फैसला किया जिससे बेटे के इलाज में कोई रुकावट ना आए।
अशोक राणा अब 62 साल के हो चुके हैं, उनकी पत्नी निर्मला देवी भी 55 साल की हैं. ऐसे में बढ़ती उम्र के कारण हरीश की देखभाल करना उनके लिए मुश्किल हो रहा है. अशोक राणा अब रिटायर हो चुके हैं, उनकी पेंशन महज़ 3 हज़ार रुपये है. छोटा बेटा आशीष अब एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहा है जिससे घर का खर्च चल पा रहा है. ऐसे में हरीश के इलाज का खर्च उठाना भी उनके लिए बेहद मुश्किल है. यही नहीं 11 साल से चल रहे इलाज, लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी हरीश की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ ऐसे में परिवार चाहता है कि हरीश को जीवन तो ना सही लेकिन मौत गरिमामयी मिले।
हाई कोर्ट ने क्यों ठुकराई याचिका?
दिल्ली हाई कोर्ट ने अशोक राणा की याचिका पर सुनवाई करते हुए मामले को चिकित्सा बोर्ड को सौंपने से इनकार कर दिया है. जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद का कहना है कि हरीश किसी भी जीवन रक्षक मशीन पर नहीं है वो बिना किसी अतिरिक्त बाहरी सहायता के जीवित है. उन्होंने कहा कि “अदालत माता-पिता के प्रति सहानुभूति रखती है, लेकिन याचिकाकर्ता असाध्य रूप से बीमार नहीं है, इसलिए यह अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती है.” जस्टिस प्रसाद ने कहा कि मरीज की ये याचिका पैसिव यूथेनेशिया के लिए ना होकर एक्टिव यूथेनेशिया यानी सक्रिय इच्छा मृत्यु की मांग करती दिख रही है जो कि भारत में कानूनी तौर पर स्वीकार्य नहीं है।
भारत में इच्छा मृत्यु के लिए क्या हैं नियम?
भारत में 2018 में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को कानूनी तौर पर वैध माना गया. सुप्रीम कोर्ट ने 9 मार्च 2018 को ‘इच्छा मृत्यु’ की मंजूरी दी थी. उस समय कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्ति को जीने के अधिकार की ही तरह गरिमा से मरने का भी अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया को मंजूरी दी थी. इसमें बीमार व्यक्ति का इलाज बंद कर दिया जाता है, ताकि उसकी मौत हो सके. भारत में इच्छा मृत्यु उसी व्यक्ति के लिए है जो किसी ऐसी गंभीर बीमारी से जूझ रहा है, जिसका इलाज संभव न हो और जिंदा रहने में उसे बेहद कष्ट उठाना पड़ रहा हो।
रिपोर्ट: साक्षी सक्सेना