“हमारे भारत देश का इतिहास बलिदान, वीर योद्धाओं, अमर शहीदों को कहानियों, राज-रहस्य, किस्सों से भरा हुआ है, आज भी अगर आप इतिहास खोलकर पढ़ना शुरू करेंगे तो कोई न कोई किस्सा, कहानी आपको सुनने और पढ़ने को मिलेगी, उसी में से एक आज हम आपको बताने जा रहा हैं, भारत के एक ऐसे गांव के बारे में जिसके लिए भारत सरकार ने अपने 12 गांव पाकिस्तान को दे दिए थे….”
रिपोर्ट:- साक्षी सक्सेना
भारत में 23 मार्च को शहीद दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. इस दिन स्वतंत्रता के दीवानों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को याद किया जाता है जिन्होंने 23 मार्च 1931 को सर्वोच्च बलिदान दिया था. दरअसल, इसी तारीख को ब्रिटिश सरकार ने तीनों वीरों को फांसी की सजा दी थी. भारत में हमेशा से शहीदों का सम्मान किया गया है. पंजाब राज्य का हुसैनीवाला गांव इस बात का जीवंत उदाहरण है।
हुसैनीवाला गांव, भारत-पाकिस्तान सीमा के करीब फिरोज़पुर शहर का हिस्सा, 1962 तक पाकिस्तान का हिस्सा हुआ करता था. 1962 में दोनों देशों के बीच समझौता हुआ, जिसमें भारत सरकार ने हुसैनीवाला गांव को हासिल करने के लिए अपने 12 गांव पाकिस्तान को दे दिए. आइए जानते हैं कि इस गांव में ऐसा क्या खास है।
हुसैनीवाला गांव में क्या खास है?
ब्रिटिश हुकूमत ने हिंदुस्तान को सालों-साल तो लूटा ही, लेकिन जाते-जाते वो इसके दो टुकड़े भी कर गई. पाकिस्तान और भारत में 1947 में विभाजन हुआ. इस विभाजन में हुसैनीवाला गांव पाकिस्तान के हिस्से में चला गया जिसका महत्व भारत के लिए ज्यादा था. दरअसल, यह वो ही जगह है जहां भारत के क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह, राजगुरू और सुख देव की समाधि है।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए सेंट्रल असेंबली में बम फेंका. इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी की सजा सुनाई गई. हालांकि, अंग्रेजों को लोगों के आक्रोश का डर था, इसलिए अंग्रेजी हुकूमत ने तय तारीख से एक दिन पहले यानी 23 मार्च को तीनों लोगों को लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ा दिया. लोगों से छुप-छिपाकर रात के समय जेल की दीवार को तोड़कर शवों को शहर से 45 किलोमीटर दूर हुसैनीवाला गांव ले जाया गया. वहां सतलुज नदी के पास बिना रीति-रिवाज के शवों को जला दिया गया और उनके अवशेषों को नदी में ही फेंक दिया गया।
भारत-पाकिस्तान के बीच क्या समझौता हुआ?
जब तक हुसैनीवाला गांव पड़ोसी मुल्क के कब्जे में था, पाकिस्तान सरकार ने कभी इन वीरों के लिए कोई स्मारक बनवाने की जहमत तक नहीं की. फिरोजपुर जिले की ऑफिशियल वेबसाइट के अनुसार, 1962 में भारत सरकार ने तय किया कि वो फाजिल्का जिले के 12 गांव देकर हुसैनीवाला गांव को ले लेंगे. दोनों देशों के बीच समझौते पर सहमति हुई।
भारत सरकार ने शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की याद में सतलज नदी के तट पर 1968 में हुसैनीवाला राष्ट्रीय शहीद स्मारक की स्थापना की. हालांकि, समझौते के बाद भी 1971 युद्ध में पाकिस्तान ने इस जगह को फिर से हथियाने की कोशिश की थी. वो अपने इरादों में तो नाकाम रहा पर युद्ध में पाकिस्तानी आर्मी इन शहीदों की प्रतिमाएं ले गई. फिरोजपुर वेबसाइट के अनुसार आज तकपाकिस्तान ने इन प्रतिमाओं को वापस नहीं किया है।
इन वीरों की भी हैं हुसैनीवाला गांव में समाधि
स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त की समाधि भी इसी गांव में मौजूद है. 1929 में भगत सिंह के साथ सेंट्रेल असेंबली में बम फोड़ने में बटुकेश्वर दत्त भी शामिल थे. बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार पंजाब के उसी गांव में किया जाए, जहां उनके साथी भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि है. शहीद भगत सिंह की मां विद्यावती का भी, उनकी इच्छा के अनुसार, इसी स्थान पर अंतिम संस्कार किया गया।
हुसैनीवाला बार्डर रिट्रीट सेरेमनी
हुसैनीवाला बार्डर पर अटारी-वाघा बार्डर की तर्ज पर रिट्रीट सेरेमनी का भी आयोजन किया जाता है. 1970 तक यह सेरेमनी नहीं होती थी. एक शाम इंस्पेक्टर जनरस बीएसएफ अश्विनी कुमार शर्मा ने दोनों देश के अधिकारियों से संयुक्त रिट्रीट समारोह आयोजित करने का आह्वान किया था. तब से यह एक परंपरा बन गई है, जो अपने आप में अनूठी है।