Baba Kharak Singh Death Anniversary special report….
रिपोर्टर: साक्षी सक्सेना
हमारे भारत देश की आजादी में बहुत से अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी रहे जिन्होंने भारत को आजादी दिलाने के लिए अपना घर, परिवार, जीवन सब कुछ लगा दिया था ऐसा ही थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाबा खड़क सिंह जी वे हर हाल में देश को आजाद देखना चाहते थे, हिंसा में यकीन नहीं करते थे। शांतिपूर्ण आंदोलन के जरिए ही वे विजय पाते रहे, कई बार अंग्रेज उनके सामने झुके। फैसले बदले, थर्राये भी, क्योंकि वे मारपीट, तोड़फोड़, हमले करने जैसी घटना में शामिल नहीं होते। ऐसे थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाबा खड़क सिंह, 95 साल की उम्र में छह अक्तूबर 1963 को दिल्ली में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके नाम पर दिल्ली के ही कनाट प्लेस में एक सड़क है, साल 1988 में एक डाक टिकट जारी हुआ।
आपको बता दें की वे उम्र में महात्मा गांधी से एक साल बड़े थे, अगर आजादी के आंदोलन में केवल सिख समुदाय के योगदान की बात करेंगे तो वे गांधी की तरह ही थे। उनका योगदान पढ़ते हुए किसी भी देशभक्त की की आंखें नम हो सकती हैं। पंजाब में ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला सफल आंदोलन उनके नेतृत्व में ही हुआ था।
जलियांवाला बाग कांड ने झकझोरा
उनकी जिंदगी बेहद सीधे सधी हुई पटरी पर रफ़्ता-रफ़्ता चली जा रही थी. स्कूली पढ़ाई पूरी हुई. लाहौर विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री ली, घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। पिता उद्योगपति थे, बाबा खड़क सिंह वकालत पढ़ने इलाहाबाद पहुंच गए, इसी दौरान असमय पिता राय बहादुर सरदार हरि सिंह का निधन हो गया। उन्हें पढ़ाई छोड़कर वापस आना पड़ा. घर का कारोबार संभालने लगे।
जब वे 51 के हुए तभी जलियांवाला बाग कांड हो गया, इस घटना ने बाबा को अंदर तक झकझोर दिया और उन्होंने अपना जीवन आजादी आंदोलन में झोंक दिया, इस वजह से मुश्किलें भी आईं, पर वे डिगे नहीं, इसी बीच उन्हें शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति का पहला अध्यक्ष चुन लिया गया।
तब अंग्रेजों का आतंक सिर चढ़कर बोल रहा था। पंजाब में मार्शल ला भी लगा हुआ था, इस तरह देखते ही देखते वे सिख राजनीति के केंद्र में आ गए।
गिरफ्तारी दी पर आंदोलन नहीं रुका
अमृतसर के ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर ने स्वर्ण मंदिर के खजाने की चाबियां अपने कब्जे में कर ली थीं, अध्यक्ष के रूप में उन्होंने आंदोलन का नेतृत्व किया। खड़क सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन आंदोलन नहीं रुका, यह आंदोलन अहिंसक था। अंग्रेजी शासन को उनके सामने झुकना पड़ा और 17 जनवरी 1922 को कड़ाके की ठंड में एक सार्वजनिक समारोह में अंग्रेजों ने स्वर्ण मंदिर के खजाने की चाबी उन्हें सौंप दी।
जब महात्मा गांधी ने दी बधाई
इस आंदोलन की सफलता पर महात्मा गांधी ने बाबा खड़क सिंह को तार भेजकर बधाई दी, उन्होंने लिखा-भारत की स्वतंत्रता के लिए पहली लड़ाई जीत ली गई है। बधाई, असल में इस विजय ने उन लोगों के मुंह भी बंद कर दी जो गांधी के गांधीवादी तरीके से आंदोलन करने पर बार-बार सवाल उठाते थे क्योंकि इस आंदोलन में न तो गांधी कहीं थे और न ही उनका किसी भी तरह का नेतृत्व।
जेल में शुरू हो गया आंदोलन
इसके बाद जेल उनका दूसरा घर जैसा हो गया, कई बार वे अंदर-बाहर होते रहे लेकिन आजादी की जंग पर डटे रहे। न हिले, न ही डिगे. उन पर अंग्रेज अफसर जो आरोप लगाते वे देशद्रोही भाषण के लगाते। एक बार उन्हें कृपाण बनाने के जुर्म में अंदर कर दिया। एक बार उन्हें सुदूर डेरा गाजी खान जेल भेजा गया, वहां अंग्रेज अफसरों ने एक आदेश जारी किया कि कोई भी कैदी गांधी टोपी या काली पगड़ी नहीं पहनेगा, बाबा ने जेल के अंदर इसे भी आंदोलन बना दिया।
कैदियों ने ऊपर के सारे वस्त्र का त्याग कर दिए, यह आंदोलन प्रतिबंध उठने तक जारी रहा। अफसर यहां भी झुके, कड़ाके की ठंड में भी कैदी कपड़े पहनने को तैयार नहीं हुए तब अफसरों को शर्मिंदगी हुई। अनहोनी की आशंका से उन्होंने अपना आदेश वापस ले लिया, बाबा सजा पूरी करके वहां से छूटे तब भी वस्त्र नहीं धारण किए हुए थे। गैरहाजिरी में भी वे फिर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी के अध्यक्ष चुने गए, हालांकि, उन्होंने बाद में इस्तीफा दे दिया और पूरी तरह सिखों के हित की रक्षा के लिए आंदोलन का फैसला लिया।
उन्होंने महात्मा गांधी के साथ आंदोलन भले ही नहीं किया लेकिन दोनों के विचारों में समानता बहुत थी। बाबा खड़क सिंह भी मुस्लिम लीग की पाकिस्तान और सिखों के लिए पंजाब की मांग का विरोध करते रहे। उन्होंने अंग्रेजों की ओर से थोपे गए कम्यूनल अवॉर्ड का भी विरोध किया, गांधी उस समय पुणे की यरवडा जेल में थे। उन्होंने वहीं अनशन शुरू कर दिया फिर एक समझौते के बाद आंदोलन खत्म हुआ, इस तरह हम उन्हें पंजाब का गांधी भी कह सकते हैं।